Friday, 23 February 2018

ज़िंदगी की सच्चाई (GULZAR'S POETRY)

जब मैं छोटा था, शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी,
मुझे याद है मेरे घर से स्कूल तक का वो रास्ता,
क्या क्या नही था वहाँ,
चाट के ठेले,
जलेबी की दुकान,
बर्फ के गोले, सब कुछ.

अब वहाँ, मोबाइल शॉप, वीडियो पार्लर हैं,
फिर भी सब सुना है,
शायद अब दुनिया सिमट रही है.

जब मैं छोटा था शायद शामें बहुत लंबी हुआ करती थी,
मैं हाथ में पतंग की डोर लिए घंटों उड़ा करता था,
वो लंबी साइकल रेस, वो बचपन के खेल,
वो हर शाम तक कर चूर हो जाना,

अब शाम नही होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है,
शायद वक़्त सिमट रहा है,

जब मैं छोटा था शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो लड़कियों की बातें, वो साथ में रोना,

अब भी कई दोस्त हैं पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी ट्रॅफिक सिग्नल पर मिलते हैं, वही हाई हो जाती हैं,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, न्यू यियर पर बार एस.एम.एस. आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहे हैं,

जब मैं छोटा था खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपान छुपाई, लंगड़ी तंग, टिप्पी टिप्पी टॉप ,
और अब इंटरनेट , ऑफीस से फ़ुर्सत ही नही मिलती,
शायद ज़िंदगी बदल रही है,

ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच यही है,
जो अक्सर कब्रिस्तान के बाहर बोर्ड पर लिखा होता है,
मंज़िल तो यही थी बस ज़िंदगी गुज़र गयी मेरी यहाँ आते आते,

ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है,
कल की कोई बुनियाद नही  है और आने वाला कल सिर्फ़ सपने में है,

अब बच गये इस पल में,
तमन्नाओं से भारी इस ज़िंदगी में हम सिर्फ़ भाग रहे हैं

कुछ रफ़्तार धीमे करो मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो, खूब जियो मेरे दोस्त....

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